Tuesday, May 22, 2012

बूढा

मैं आज फिर अलसुबह ही निकल गया 
अपने कमरे से बड़े दफ्तर के लिये 
बस की खिडखी से उस घर को देखा 
जाना पहचाना मगर मुझसे वो अंजान सा

छत पर खड़ा बूढा जाने क्या ताक रहा था
झूले के पास बैठा 'टॉमी' पुचकार की आस लगाये था
शायद उस पहर वो दोनों ही जागे थे
मटीयाई बंडी में पड़ी शिकन उसकी रात भर की,
बेचैन करवटों का किस्सा लिख चुकी थी
हाथ की झुरियों के बीच एक सिगरेट जल रही थी
लेकिन धुंआ उठकर सर्द हवा में घुलता जा रहा था
दुसरे हाथ ने अखबार बस अनमना सा धरा था
और आंख की ऐनक दांतों में दबी थी

उसके ज़ेहन और ज़िस्म साथ साथ नहीं थे
ना जाने क्या क्या सोच रहा था वो
कोई पुरानी याद या होनी वाली कोई और बात
वक़्त के साथ चलते, ज़िन्दगी की धार में बहते
उसने ना जाने क्या क्या पा लिया था और
कौन जाने कितना कुछ खो भी दिया !

उसे यूँ देख अचानक मुझे लगा जैसे
कुछ सालों में मैं भी कहीं ठहर कर
ऐसे ही लम्हों का हिसाब करता मिलूंगा
और मुझे देखता हुआ कोई गुज़र जायेगा
सामने की नुक्कड़ से, बगल की सड़क से

.. ये सिलसिला यूं ही मुसलसल चला है ना !

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