मैं आज फिर अलसुबह ही निकल गया
अपने कमरे से बड़े दफ्तर के लिये
बस की खिडखी से उस घर को देखा
जाना पहचाना मगर मुझसे वो अंजान सा
छत पर खड़ा बूढा जाने क्या ताक रहा था
झूले के पास बैठा 'टॉमी' पुचकार की आस लगाये था
शायद उस पहर वो दोनों ही जागे थे
मटीयाई बंडी में पड़ी शिकन उसकी रात भर की,
बेचैन करवटों का किस्सा लिख चुकी थी
हाथ की झुरियों के बीच एक सिगरेट जल रही थी
लेकिन धुंआ उठकर सर्द हवा में घुलता जा रहा था
दुसरे हाथ ने अखबार बस अनमना सा धरा था
और आंख की ऐनक दांतों में दबी थी
उसके ज़ेहन और ज़िस्म साथ साथ नहीं थे
ना जाने क्या क्या सोच रहा था वो
कोई पुरानी याद या होनी वाली कोई और बात
वक़्त के साथ चलते, ज़िन्दगी की धार में बहते
उसने ना जाने क्या क्या पा लिया था और
कौन जाने कितना कुछ खो भी दिया !
उसे यूँ देख अचानक मुझे लगा जैसे
कुछ सालों में मैं भी कहीं ठहर कर
ऐसे ही लम्हों का हिसाब करता मिलूंगा
और मुझे देखता हुआ कोई गुज़र जायेगा
सामने की नुक्कड़ से, बगल की सड़क से
.. ये सिलसिला यूं ही मुसलसल चला है ना !
बस की खिडखी से उस घर को देखा
जाना पहचाना मगर मुझसे वो अंजान सा
छत पर खड़ा बूढा जाने क्या ताक रहा था
झूले के पास बैठा 'टॉमी' पुचकार की आस लगाये था
शायद उस पहर वो दोनों ही जागे थे
मटीयाई बंडी में पड़ी शिकन उसकी रात भर की,
बेचैन करवटों का किस्सा लिख चुकी थी
हाथ की झुरियों के बीच एक सिगरेट जल रही थी
लेकिन धुंआ उठकर सर्द हवा में घुलता जा रहा था
दुसरे हाथ ने अखबार बस अनमना सा धरा था
और आंख की ऐनक दांतों में दबी थी
उसके ज़ेहन और ज़िस्म साथ साथ नहीं थे
ना जाने क्या क्या सोच रहा था वो
कोई पुरानी याद या होनी वाली कोई और बात
वक़्त के साथ चलते, ज़िन्दगी की धार में बहते
उसने ना जाने क्या क्या पा लिया था और
कौन जाने कितना कुछ खो भी दिया !
उसे यूँ देख अचानक मुझे लगा जैसे
कुछ सालों में मैं भी कहीं ठहर कर
ऐसे ही लम्हों का हिसाब करता मिलूंगा
और मुझे देखता हुआ कोई गुज़र जायेगा
सामने की नुक्कड़ से, बगल की सड़क से
.. ये सिलसिला यूं ही मुसलसल चला है ना !