Monday, February 7, 2011

हिज़्र

जितना सह सकूँ उससे ज्यादा तेरी कमी महसूस की है 
किसी याद में भी नहीं पाता कि मैं भूला तुझे कभी


चाँद जल्दी अब्र पे सज गया आज, जैसे तुम्हें ढूँढने आया हो 
सारा घर पलट कर देखा मैंने, हर सामान पर तेरा अक्स है
छूकर देखा तो हाथों में सीलन का एहसास पाया
., वो ज़रूर तेरी नम आँखों का ही लम्स होगा


ये धागा भी अब टूटने आया, गोया कि झूठ कहा हो पंडित ने 
जब हमें साथ बांधने, दोनों को लाल मौली दी थी उसने 
तुम मुझ पर भरोसा नहीं रखती, जानता हूँ लेकिन फिर भी
अगर कुछ ख़ास न करो तो, उस ब्राहमण की बात रखने ही आओ


देर शाम दूसरी सालगिरह है हिज़्र की 
सोचा इस बरस साथ ही मना लें ..


तुम्हारे पास रहने सिवा भी हसीं तोहफ़ा, अब क्या होगा !

No comments:

Post a Comment