Thursday, February 3, 2011

झूला



दिन जलकर रात हो जाता है 
शामें अब नहीं हुआ करती 


दरवाज़े पे याद की दस्तक तेरी 
खामोशियां तोड़ जाती है मेरी


मन की सेज पर ख्याल बिछाना
नींदों के पाखी यूं ही रोज़ उड़ाना 


इक तेरे साथ का लम्हा था सजाना
कोशिशें की मैंने मगर वो ना माना


आंगन के झूले पर वक़्त ही नहीं बैठता
क्यूं कर ज़िद मेरी भला ये ना समझता

No comments:

Post a Comment