दिन जलकर रात हो जाता है
शामें अब नहीं हुआ करती
दरवाज़े पे याद की दस्तक तेरी
खामोशियां तोड़ जाती है मेरी
मन की सेज पर ख्याल बिछाना
नींदों के पाखी यूं ही रोज़ उड़ाना
इक तेरे साथ का लम्हा था सजाना
कोशिशें की मैंने मगर वो ना माना
आंगन के झूले पर वक़्त ही नहीं बैठता
क्यूं कर ज़िद मेरी भला ये ना समझता
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