दीवारों की सीलन, छत की दरारें गिन जी उब गया
इस १२ x ८ के पिंजरे में दिन अब नहीं समाता
ये काली खिड़की भी शाम से, उदास रहती है
बेचैन रात करवटें लेती है ७ x ३ के बिस्तर पे
खटमल रेंगने लगते हैं हर वक़्त बदन पर मेरे
दाग़ी फ़र्श की तरह तुममें छिप जाऊं तो क़रार मिले
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