Friday, February 4, 2011

कमरा


दीवारों की सीलन, छत की दरारें गिन जी उब गया
इस १२ x ८ के पिंजरे में दिन अब नहीं समाता
ये काली खिड़की भी शाम से, उदास रहती है
बेचैन रात करवटें लेती है ७ x ३ के बिस्तर पे
खटमल रेंगने लगते हैं हर वक़्त बदन पर मेरे

दाग़ी फ़र्श की तरह तुममें छिप जाऊं तो क़रार मिले

No comments:

Post a Comment